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उग्र-राष्ट्रवाद या अतिवादी राजनीति के उदय के कारण

उग्र-राष्ट्रवाद या अतिवादी राजनीति के उदय के कारण


उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों विशेषतः 1890 के पश्चात भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय प्रारंभ हुआ तथा 1905 तक आते-आते इसने पूर्ण स्वरूप धारण कर लिया। किंतु इसके पीछे क्या कारण थे ?
कांग्रेस की अनुनय-विनय की नीति से ब्रिटिश सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा तथा वे शासन में मनमानी करते रहे। इसके प्रतिक्रियास्वरूप इस भावना का जन्म हुआ कि स्वराज्य मांगने से नहीं अपितु संघर्ष से प्राप्त होगा। संवैधानिक आंदोलन से भारतीयों का विश्वास उठ गया। अतः संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की जिस भावना का जन्म हुआ उसे ही उग्र राष्ट्रवाद की भावना कहते हैं।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक दल इसी भावना का कट्टर समर्थक था। इस दल का मत था कि कांग्रेस का ध्येय स्वराज्य होना चाहिए, जिसे वे आत्मविश्वास या आत्म-निर्भरता से प्राप्त करें। यह दल उग्रवादी कहलाया।

जिन तत्वों के कारण उग्र राष्ट्र-वाद का जन्म हुआ, उनमें प्रमुख निम्नानुसार हैं-

अंग्रेजी राज्य के सही स्वरूप की पहचान

अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस के प्रार्थना-पत्रों एवं मांगों पर ध्यान न दिये जाने के कारण राजनीतिक रूप से जागृत कांग्रेस का एक वर्ग असंतुष्ट हो गया तथा वह राजनितिक आन्दोलन का कोई दूसरा रास्ता अपनाने पर विचार करने लगा। इसका विश्वास था कि स्वशासन ही भारत के विकास एवं आत्म-निर्भरता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने देश को विपन्नता के कगार पर पहुंचा दिया था। 1896 से 1900 के मध्य पड़ने वाले भयंकर दुर्भिक्षों से 90 लाख से भी अधिक लोग मारे गये किंतु अंग्रेज शासकों की उपेक्षा विद्यमान रही। दक्षिण-भारत में आये भयंकर प्लेग से हजारों लोग काल के ग्रास बन गये।इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत ही में हुये साम्प्रदायिक झगड़ों ने जन-धन को अपार क्षति पहुंचायी। इन परिस्थतियों में सरकार की निरंतर उपेक्षा से देशवासियों का प्रशासन से मोह भंग हो गया। राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को अधिक अधिकार देने की अपेक्षा वर्तमान अधिकारों को भी वापस लेने का कुत्सित प्रयास कर रही है। फलतः इन राष्ट्रवादियों ने तत्कालीन विभिन्न नियमों एवं अधिकारों की आलोचना की।

इस अवधि की निम्न घटनाओं ने भी इस दिशा में उत्प्रेरक का कार्य किया।

1892- के भारतीय परिषद अधिनियम की राष्ट्रवादियों ने यह कहकर आलोचना की कि यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में असफल रहा है।
1897- में पुणे के नाटु बंधुओं को बिना मुकदमा चलाये देश से निर्वासित कर दिया गया एवं तिलक तथा अन्य नेताओं को राजद्रोह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लम्बे कारावास का दण्ड दिया गया।
1898- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए का दमनकारी कानून नये प्रावधानों के साथ पुनः स्थापित और विस्तृत किया गया तथा एक नई धारा 156-ए जोड़ दी गयी।
1899- कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट द्वारा कलकत्ता निगम के सदस्यों की संख्या में कमी कर दी गयी।
1904– कार्यालय गोपनीयता कानून (Official Secrtes Act) द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता का दमन।
1904- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी पारित प्रस्तावों पर निषेधाधिकार (Veto) दिया गया।
ब्रिटिश शासन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव भी विनाशकारी रहे। इसने शिक्षा के प्रसार में उपेक्षा की नीति अपनायी विशेषकर लोकशिक्षा, स्त्रीशिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में।

आत्मविश्वास तथा आत्म-सम्मान में वृद्धि

राष्ट्रवादियों के प्रयास से भारतीयों के आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान में वृद्धि हुयी।तिलक, अरविन्द घोष तथा विपिन चंद्र पाल ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं से अपील की कि वे भारतीयों की विशेषताओं एवं शक्ति की पहचानें। धीरे-धीरे यह धारणा बलवली होने लगी कि जन साधारण के सहयोग के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्यों तक नहीं पहुंचा जा सकता।

शिक्षा का विकास

शिक्षा के व्यापक प्रसार से जहां एक ओर भारतीय तेजी से शिक्षित होने लगे तथा उनमें जागृति आयी, वहीं दूसरी ओर उनमें बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी भी बढ़ी क्योंकि शिक्षित होने वाले व्यक्तियों की तुलना में सरकार रोजगार के अवसरों का सृजन नहीं कर सकी।इनमें से अधिकांश ने अपनी बेकारी और दयनीय आर्थिक दशा के लिये उपनिवेशी-शासन को उत्तरदायी ठहराया तथा धीरे-धीरे वे विदेशी शासन को समूल नष्ट करने के लिये उग्र राष्ट्रवाद की ओर झुकने लगे। चूंकि भारतीयों का यह नव-शिक्षित वर्ग पश्चिमी शिक्षा के कारण वहां के राष्ट्रवाद, जनतंत्र एवं आमूल परिवर्तन के विचारों से अवगत हो चुका था फलतः उसने साधारण भारतीयों में भी आमूल परिवर्तन लाने वाली राष्ट्रवादी राजनीति का प्रसार प्रारंभ कर दिया।

बढ़ते हुये पश्चिमीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया

नवीन राष्ट्रवादी नेताओं ने बढ़ते हुये पश्चिमीकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की क्योंकि भारतीय राजनीतिक चिंतन एवं समाज में पश्चिमी प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। भारत का सांस्कृतिक पहलू भी इससे अछूता न रहा। इससे भारतीय संस्कृति के पाश्चात्य संस्कृति में विलीन होने का खतरा पैदा हो गया। ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र चटर्जी एवं स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे विद्वानों ने भारतीय तथा वैदिक संस्कृति के प्रति लोगों में नया विश्वास पैदा किया तथा भारत की प्राचीन समृद्ध विरासत का गुणगान कर पश्चिमी संस्कृति की पोल खोल दी। इन्होंने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक समृद्धि का बखान कर पाश्चात्य सर्वश्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया।इनके प्रयासों से भारतीयों की यह हीन भावना दूर हो गयी कि वे पश्चिम से पिछड़े हुये हैं। दयानंद ने घोषित किया भारत भारतीयों के लिये है

उदारवादियों की उपलब्धियों से असंतोष

तरुण राष्ट्रवादी कांग्रेस के पहले 15-20 वर्षों की उपलब्धियों से संतुष्ट न थे। वे कांग्रेस की क्षमा, याचना एवं शांतिपूर्ण प्रतिवाद की नीति के तीव्र आलोचक थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद को इस तरह की नीतियों से कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता।उदारवादियों की इस नीति को उन्होंने‘राजनीतिक भिक्षावृति’ की संज्ञा दी। वे स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु उग्र आंदोलन चलाये जाने के पक्षधर थे।

लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियां

लार्ड कर्जन का भारत में 7 वर्ष का शासन शिष्टमंडल, भूलों तथा आयोगों के लिए प्रसिद्द है। जनमानस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुयी। कर्जन ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया तथा कांग्रेस को ‘मन के उद्गार निकालने वाली संस्था’ की संज्ञा दी। उसने भारत विरोधी बयान दिये।उसके शासन के विभिन्न प्रतिक्रियावादी कानूनों यथा-कार्यालय गोपनीयता अधिनियम, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम तथा कलकत्ता कार्पोरेशन अधिनियम इत्यादि से भारतीय खिन्न हो गये।1905 में बंगाल के विभाजन तथा कटुभाषा के प्रयोग से भारतीयों का असंतोष चरम सीमा पर पहुंच गया। बंगाल विभाजन के विरोध में पूरे देश में तीव्र आंदोलन हुये तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। कर्जन के इन कार्यों से ब्रिटिश शासकों की प्रतिक्रियावादी मंशा स्पष्ट उजागर हो गयी।

जुझारू राष्ट्रवादी विचारधारा

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जुझारू या उग्र विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ, जिसने राजनितिक कार्यों एवं आंदोलनों के लिये उग्र तरीके अपनाने पर जोर दिया। इन जुझारू राष्ट्रवादियों में बंगाल के राज नारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्त, अरविंद घोष तथा तथा विपिन चन्द्र पाल, महाराष्ट्र के विष्णु शास्त्री चिपलंकर, बल गंगाधर तिलक एवं पंजाब के लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इस उग्र विचाराधारा के उत्थान में सबसे अधिक सहयोग तिलक ने दिया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में मराठा एवं मराठी में केसरी के माध्यम से भारतीयों को जुझारू राष्ट्रवाद की शिक्षा दी और कहा कि आजादी बलिदान मांगती है|

इस विचारधारा के समर्थकों के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार थे-

विदेशी शासन से घृणा करो, इससे किसी प्रकार की उम्मीद करना व्यर्थ है, अपने उद्धार के लिये भारतीयों को स्वयं प्रयत्न करना चाहिए।स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य लक्ष्य स्वराज्य है।राजनीतिक क्रियाकलापों में भारतीयों की प्रत्यक्ष भागेदारी।निडरता, आत्म-त्याग एवं आत्म विश्वास की भावना प्रत्येक भारतीय में अवश्य होना चाहिए।स्वतंत्रता पाने एवं हीन दशा को दूर करने हेतु भारतीयों को संघर्ष करना चाहिए।

स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन 

स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन सरकार द्वाराबंगाल विभाजन के निर्णय के विरोधस्वरूपचलाया गया था तथा यह बंग-भंग का ही प्रतिफल था।

बंगाल विभाजन

दिसम्बर 1903 में अंग्रेज सरकार ने बंगाल विभाजन की सार्वजनिक घोषणा की। इसके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य बंगाल को दुर्बल करना था क्योंकि उस समय बंगाल भारतीय राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख केंद्र था।

बंगाल विभाजन के तहत बंगालियों को प्रशासनिक सुविधा के लिये दो तरह से विभाजित कर दिया गया-

भाषा के आधार पर- (इससे बंगाली भाषा-भाषी बंगाल में ही अल्पसंख्यक बन गये, क्येांकि 1 करोड़ 70 लाख लोग बंगाली भाषा बोलते थे, जबकि हिन्दी एवं उड़िया बोलने वालों की संख्या 3 करोड़ 70 लाख थी)धर्म के आधार पर- पश्चिमी बंगाल हिन्दू बहुसंख्यक क्षेत्र था, जहां हिन्दुओं की संख्या कुल 5 करोड़ 40 लाख में से 4 करोड़ 20 लाख थी तथा पूर्वी बंगाल मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र था, जहां कुल आबादी 3 करोड़ 10 लाख में से मुसलमानों की आबादी 1 करोड़ 80 लाख थी। मुसलमानों के प्रति प्यार दिखाते हुये कर्जन ने कहा कि ढाका नये मुस्लिम बहुल प्रांत (पूर्वी बंगाल) की राजधानी बन सकता है, क्योंकि इससे मुसलमानों में एकता बढ़ेगी, जो कि मुगल शासकों के समय उनमें पायी जाती थी। इस प्रकार बंगाल विभाजन के निर्णय से स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज, कांग्रेस एवं स्वतंत्रता आन्दोलन को दुर्बल बनाने के लिए मुस्लिम सम्प्रदायवाद को उभारना चाहते थे।

उदारवादियों द्वारा बंगाल विभाजन का विरोध 1903-1905 ई.

इस काल में उदारवादी, जिन्होंने बंगाल विभाजन के विरोध में सक्रिय भूमिका निभायीसुरेंद्रनाथ बनर्जी, के.के. मित्रा तथा पृथ्वीशचंद्र राय प्रमुख थे। उदारवादियों ने सरकार के इस निर्णय के विरोध में सरकार को प्रार्थनापत्र सौंपे, सभायें आयोजित की, निंदा प्रस्ताव पतित किए तथा हितवादी, संजीवनी एवं बंगाली जैसे पत्रों के माध्यम से बंगाल विभाजन का विरोध किया।उदारवादियों का उद्देश्य था कि भारत एवं इंग्लैण्ड में शिक्षित भारतीयों के माध्यम से एक ऐसा जनमत तैयार किया जाये जो बंगाल विभाजन के निर्णय को वापस लेने हेतु अंग्रेज सरकार पर दबाव डाल सके।भारतीयों के विरोध स्वर की उपेक्षा करते हुये भी सरकार ने जुलाई 1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। इस घोषणा के कुछ दिनों के भीतर ही लगभग पूरे बंगाल में विरोध सभायें आयोजित की गयीं।इन सभाओं में सबसे पहले विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का निर्णय लिया गया। 7 अगस्त 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में कलकत्ता के टाउन हाल में एक विशाल प्रदर्शन आयोजित किया गया जहां से स्वदेशी आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा की गयी। इसके पश्चात राष्ट्रवादी नेताओं ने बंगाल के विभिन्न भागों का दौरा किया तथा लोगों से मैनचेस्टर के कपड़ों एवं लिवरपूल के बने नमक का बहिष्कार करने का आग्रह किया।16 अक्टूबर 1905 को जब बंगाल विभाजन विधिवत रूप से लागू हुआ, आंदोलनकारियों ने यह दिन शोक दिवस के रूप में मनाया। लोगों ने व्रत रखे, गंगा में स्नान किया तथा नंगे पांव पदयात्रा करते हुये वंदे मातरम गीत गाया। (कालांतर में वंदे मातरम गीत, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे मुख्य गीत बन गया)। विभाजित बंगाल के दोनों भागों के लोगों ने आपसी एकता प्रदर्शित करने हेतु एक-दूसरे के हाथों में राखियां बांधी।इसी दिन सुरेंद्रनाथ बनर्जी एवं आनंद मोहन बोस ने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया, जो कि स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित संभवतः तब तक की सबसे विशाल जनसभा थी। जनसभा में शामिल प्रदर्शनकारियों ने विरोध अभियान चलाने के लिये 50 हजार रुपये एकत्र किये।शीघ्र ही यह विरोध प्रदर्शन बंगाल से निकलकर भारत के अन्य भागों में भी फैल गया। पूना एवं बंबई में इस आंदोलन का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक ने किया जबकि पंजाब में लाल लाजपत राय एवं अजीत सिंह ने, दिल्ली में सैय्यद हैदर रजा एवं मद्रास में चिदम्बरम पिल्लई ने इसे नेतृत्व प्रदान किया।

कांग्रेस की स्थिति

1905 में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में निम्न दो प्रस्ताव पारित किये गये-
1. कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों एवं बंगाल विभाजन की आलोचन करना
2. बंगाल में बंग-भंग विरोधी अभियान तथा स्वदेशी अभियान को समर्थन देना।
इस संबंध में उग्रवादी राष्ट्रवादी जैसे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल एवं अरविंद घोष का मत था कि विरोध अभियान का प्रसार बंगाल से बाहर पूरे देश में हो तथा इसे विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तक ही सीमित न रखकर पूर्ण स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में चलाया जाये, जिससे पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। किंतु इस समय कांग्रेस में नरमपंथियों का प्रभुत्व था तथा वे इसे बंगाल के बाहर चलाये जाने के पक्ष में नहीं थे।1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में आयोजित किया गया। इस अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि कांग्रेस का लक्ष्य इंग्लैंड या अन्य उपनिवेशों की तरह ‘स्वशासन या स्वराज्य’ है।

उग्रवादी राष्ट्रवादियों की गतिविधियां

1905 के पश्चात बंगाल में चल रहे स्वदेशी आंदोलन में उग्र विचारधारा वाले नेताओं का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसके मुख्य तीन कारण थे।
1. उदारवादियों के नेतृत्व में आंदोलन का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला।
2. उदारवादियों के संवैधानिक रूख से उग्रवादी असहमत थे।
3. सरकार ने अभियान को असफल बनाने हेतु कार्यकर्ताओं का दमन प्रारंभ कर दिया। इसके तहत विद्यार्थियों को प्रताड़ित किया गया, वंदे मातरम के गाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, स्वदेशी के कार्यकर्ताओं को दण्ड एवं कारावास की सजा दी गयी, अनेक स्थानों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया, नेताओं को निर्वासन की सजा दी गयी तथा प्रेस का दमन किया गया।कांग्रेस ने दिसम्बर 1906 में कलकत्ता में अपने वार्षिक अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी के नेतृत्व में स्वराज्य की प्राप्ति को अपना प्रमुख लक्ष्य घोषित किया। स्वराज्य का अर्थ वह शासन पद्धति समझा गया जो सभी स्वशासित उपनिवेशों में प्रचलित थी। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रोत्साहन पर भी बल दिया गया।विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की शपथ ली गई। कई स्थानों पर विदेशी वस्तुओं की दुकानों के समक्ष धरना दिया गया तथा विदेशी वस्तुओं की सार्वजनिक रूप से होली जलायी गयी। नेताओं ने लोगों से स्कूलों, कालेजों, सरकारी कार्यालयों, उपाधियों इत्यादि का बहिष्कार करने की अपील की। इस अवसर पर अरविंद घोष ने कहा ‘शासन संचालन को अवरुद्ध कर दो, ऐसे किसी भी कार्य या प्रयत्न से दूर रहो जिससे इंग्लैंड के वाणिज्य-व्यापार को लाभ पहुँचता हो तथा भारत का आर्थिक शोषण होता हो’। उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे एकजुट होकर अंग्रेजी शासन-तंत्र को असफल बनाने हेतु आगे आयें। उग्र राष्ट्रवादियों ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन तथा स्वदेशी अभियान को जन आंदोलन का स्वरूप देने का प्रयत्न किया तथा नारा दिया ‘उपनिवेशी शासन से भारत की आजादी मिले’। अरविंद घोष ने स्पष्ट कियाराजनीतिक स्वतंत्रता ही राष्ट्र की जीवन सांसें हैं। इस प्रकार गरमपंथियों ने भारतीय स्वतंत्रता की अवधारणा को राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य लक्ष्य बना दिया।

संघर्ष का नया स्वरूप

उग्र राष्ट्रवादियों ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान एवं रूख को एक नये आयाम से जोड़ा। उन्होंने जुझारू राष्ट्रवाद का प्रचार किया तथा नरमपंथियों की अवधारणा को पूर्णतया नकार दिया। इस अभियान के तहत संघर्ष के जो विभिन्न तरीके अपनाये गये वे इस प्रकार थे-

विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

इसके अंतर्गत विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं की होली जलाना, विदेश में निर्मित नमक एवं चीनी का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं के प्रयोग वाले धार्मिक विवाह समारोहों का बहिष्कार करने हेतु ब्राह्मणों से अपील करना तथा धोबियों द्वारा विदेशी कपड़े धोने से इंकार करने का आग्रह करना जैसे कार्यक्रम शामिल थे। यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय हुआ तथा इसे राजनीतिक स्तर पर अत्यंत सफलता मिली।

जनसभाएं एव विरोध प्रदर्शन

ये दोनों माध्यम इस अभियान के दौरान अत्यंत लोकप्रिय हुए तथा जनसँख्या के एक काफी बड़े हिस्से ने इनमें सक्रीय भागेदारी निभायी।

स्वयंसेवी संगठनों एव समितियों का गठनः

इस अभियान में समितियां एवं विभिन्न स्वयंसेवी संगठन, जन सहयोग की अत्यंत सशक्त एवं लोकप्रिय संस्थाओं के रूप में उभरे।बारीसल में अश्विनी कुमार दत्त की ‘स्वदेशी बंधब समिति’इसी प्रकार की एक अत्यंत लोकप्रिय समिति थी। इन समितियों ने जन सामान्य में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। समितियों द्वारा जनजागरण हेतु विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाये जाते थे, जिनमें व्याख्यानों का आयोजन, स्वदेशी गीतों को गाना, कार्यकर्ताओं को नैतिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण, अकाल महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं क्रए समय सामाजिक सहयोग, नए स्कूलों की स्थापना एवं स्वदेशी दस्तकारी हेतु प्रशिक्षण इत्यादि प्रमुख थे।

परम्परागत एक लोकप्रिय उत्सवों का जुझारु राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार में उपयोग

उग्रवादी राष्ट्रवादियों ने विभिन्न परम्परागत एवं लोकप्रिय उत्सव एवं मेलों का प्रयोग, जनाधार बढ़ने एवं राजनितिक चेतना के प्रचार-प्रसार में किया। उदाहरणार्थ-तिलक का गणपति एवं शिवाजी उत्सव न केवल महाराष्ट्र अपितु बंगाल में भी स्वदेशी अभियान का एक प्रमुख माध्यम बन गया। बंगाल में परंपरागत लोक नाट्यशालाओं का प्रयोग भी इस अभियान को लोकप्रिय एवं सफल बनाने में किया गया।

आत्म विश्वास या आत्म-शक्ति की भावना पर बल:

इस भावना के प्रसार से राष्ट्रीय प्रतिष्ठा एवं विश्वास की भावना को बल मिला तथा गांवों का सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्जन्म हुआ। इसके तहत विभिन्न समाज सुधार कार्यक्रम एवं अभियान चलाये गये जिनमें जाति प्रथा का विरोध, बाल विवाह पर रोक, दहेज प्रथा का विरोध एवं मद्य निषेध इत्यादि प्रमुख थे।

स्वदेशी या राष्ट्रीय शिक्षा कार्यक्रम

रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन से प्रेरणा लेकर कलकत्ता में नेशनल कालेज खोला गया तथा अरविंद घोष इसके प्रधानाचार्य नियुक्त किये गये। शीघ्र ही देश के कई अन्य भागों में नेशनल स्कूल एवं कालेजों की स्थापना की गयी। साहित्यिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा को संगठित करने हेतु 15 अगस्त 1906 को नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशन की स्थापना की गई जिससे देशवासियों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित किया जा सके। समाचार पत्रों के माध्यम से शिक्षा के प्रचार को प्रोत्साहित किया गया। तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए ‘बंगाल तकनीकी संसथान’ की स्थापना की गयी तथा मेधावी छात्रों को उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने हेतु जापान भेजने की व्यवस्था की गयी।

स्वदेशी एव भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन

स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन के कारण भारतीय उद्योगों को अधिक प्रोत्साहन मिला। अनेक कपडा मिलें, साबुन और माचिस की फैक्ट्रियां, हस्तकरघा कारखाने, बैंक एवं बीमा कम्पनियां खोली गयीं। आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने प्रसिद्ध बंगाल कैमिकल स्वदेशी स्टोर की स्थापना की। इस समय भारतीय व्यापारियों में व्यावसायिक कारोबार की अपेक्षा देशभक्ति का उत्साह अधिक था।

सांस्कृतिक जगत का प्रभाव

इस काल में महान राष्ट्रवादियों जैसे-रवींद्रनाथ टैगोर, रजनीकांत सेन, द्विजेंद्रलाल राय, मुकुंद दास, सैय्यद अबू मोहम्मद इत्यादि ने अनेक राष्ट्रवादी कविताओं एवं गीतों की रचना की जिससे भारतीयोंको अभूतपूर्व प्रेरणा मिली। इस अवसर पर रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित अमार सोनार बांग्ला नामक प्रसिद्ध गीत ने तो कालांतर में बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन को अभूतपूर्व प्रेरणा दी तथा बांग्ला देश ने इसे राष्ट्रगान के रूप में अपनाया।चित्रकला के क्षेत्र में रवींद्रनाथ टैगोर ने विक्टोरियन प्रकृतिवाद के वर्चस्व को तोड़ दिया तथा मुगल, अजन्ता एवं राजपूत काल की चित्रकला से प्रेरणा लेकर अनेक राष्ट्रवादी चित्रों का निर्माण किया। प्रसिद्ध भारतीय कला मर्मज्ञ नन्दलाल बोस ने भारतीय कला के प्रोत्साहन में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा 1907 में स्थापित इन्डियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट की प्रथम छात्रवृत्ति पाने का गौरव हासिल किया। विज्ञान के क्षेत्र में जगदीश चंद्र बोस, प्रफुल्लचंद्र राय एवं अन्य वैज्ञानिकों के अनेक महत्वपूर्ण अन्वेषण किये, जिनकी न केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में प्रशंसा की गयी।
आांदोलन का सामाजिक आधार

स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन के कारण बड़ी संख्या में छात्रों ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। छात्रों ने स्वदेशी को व्यवहार रूप में अपनाया तथा बहिष्कार सम्बंधी धरनों एवं प्रदर्शनों में अग्रणी भूमिका निभायी।स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि घर की चहारदीवारी में केंद्रित महिलायें विशेषकर शहरी क्षेत्रों की मध्यवर्गीय महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारंभ कर दिया। महिलाओं ने कधे से कंधा मिलाकर जुलूसों, सभाओं एवं विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया। कालांतर में उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन के द्वारा अनेकमुस्लिम नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया। इनमें बैरिस्टर अब्दुल रसूल, लियाकत हुसैन तथा गजनवी मुस्लिम नेता या तो आंदोलन से दूर रहे या उन्होंने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। ढाका के नवाब सलीमुल्ला ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया तथा घोषित किया कि इससे उन्हें मुस्लिम आबादी बहुल पूर्वी बंगाल का नया राज्य प्राप्त होगा।इस प्रकार स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का सामाजिक आधार ज्यादा व्यापक नहीं हो सका क्योंकि इस आंदोलन में जमींदारों के कुछ वर्ग, विद्यार्थियों, महिलाओं एवं शहरों तथा कस्बों के निम्न मध्य वर्ग के लोगों ने ही सक्रिय रूप से भाग लिया।आंदोलन को मजदूरों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध स्वर मुखरित करने का मंच बनाने का प्रयत्न भी किया गया।
सरकार के सहयोग से वह ढाका के नवाब सलीमुल्ला एवं आगा खां ने 1907 में मुस्लिम लीग का गठन किया, जिसका प्रयोग अंग्रेजों ने स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन को विफल करने में किया।

बंगाल विभाजन रद्द

क्रांतिकारी आतंकवाद के उभरने के भय से 1911 में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया। किंतु बंगाल विभाजन रद्द होने से मुसलमानों को काफी आघात लगा। विभाजन रद्द किये जाने के साथ ही सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली लाने की घोषणा की जो मुस्लिम संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र था किंतु मुसलमान इस निर्णय से खुश नहीं हुये। बिहार एवं उड़ीसा को बंगाल से पृथक कर दिया गया तथा असम की एक पृथक प्रांत बना दिया गया।

स्वदेशी आंदोलन की असफलता के कारण

1908 तक स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का बाह्य उन्माद (यद्यपि यह चरण भूमिगत क्रांतिकारी चरण से भिन्न था) ठंडा पड़ चुका था। इसके कई कारण थे-
ब्रिटिश सरकार ने आंदोलनकारियों के प्रति कठोर दमनात्मक रुख अपनाया।आंदोलन एक सक्रिय संगठन या पार्टी का रूप नहीं ले सका। यद्यपि आन्दोलन में विभिन्न गांधी वादी सिद्धांतों यथा-असहयोग, सत्याग्रह, जेल भरो आंदोलन इन सिद्धांतों को एक अनुशासनात्मक दिशा नहीं दे सका।आंदोलन आगे चलकर नेतृत्वविहीन हो गया क्योंकि 1908 तक अधिकांश नेता या तो गिरफ्तार कर लिये गये थे या देश से निर्वासित कर दिये गये थे। इसी समय अरविन्द घोष तथा विपिनचंद्र पाल ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया।कांग्रेस के नेताओं के मध्य आतंरिक झगड़े की परिणति 1907 के सूरत विभाजन के रूप में हुयी। इससे आंदोलन को भारी आघात पहुंचा।यद्यपि आदोलन ने जनसामान्य की शक्ति और ऊर्जा को उभारने का कार्य तो किया किंतु इस शक्ति एवं ऊर्जा को संगठित कर वह सही स्वरूप एवं दिशा में सफल नहीं हो सका।आंदोलन समाज के सभी वगों में अपनी पैठ नहीं बना सका। यह उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा जमींदारों तक ही सीमित रहा। मुसलमानों तथा किसानों को प्रभावित करने में यह पूर्णतया असफल साबित हुआ।असहयोग एवं सत्याग्रह मुख्यतः सिद्धांत रूप में ही रहे तथा ज्यादा व्यावहारिक रूप नहीं ले सके।बिना किसी सुनिश्चित योजना एवं कार्यनीति के किसी भी जन आंदोलन को सही दिशा नहीं दी जा सकती। संभवतः इस आंदोलन के साथ भी यही विसंगति रही।

मूल्यांकन

यद्यपि स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन अपने उद्देश्यों में पूर्णतयाः सफल नहीं हो सका किंतु इस आंदोलन की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। यह आंदोलन आधुनिक भारत के इतिह्रास की एक प्रमुख घटना थी तथा इसके अत्यंत दूरगामी परिणाम हुये।
देशप्रेम एवं राष्ट्रीयता का तीव्र प्रसार करने में स्वदेशी आंदोलन को अपार सफलता मिली। यह आंदोलन विदेशी शासन के विरुद्ध जनता की भावनाओं की जागृत करने का अत्यंत शक्तिशाली साधन सिद्ध हुआ।अभी तक स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीति से पृथक रहने वाले अनेक वर्गो यथा- छात्रों, महिलाओं तथा कुछ ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या ने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।स्वतंत्रता आंदोलन के सभी प्रमुख माध्यमों जैसे- उदारवाद से राजनीतिक अतिवाद, क्रांतिकारी आतंकवाद से प्रारंभिक समाजवाद तथा याचिका एवं प्रार्थना पत्रों से असहयोग एवं सत्याग्रह का अस्तित्व इस आंदोलन में परिलक्षित हुआ।आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र राजनीतिक जगत तक ही सीमित न रहा अपितु साहित्य, विज्ञान एवं उद्योग जगत पर भी इसका प्रभाव पड़ा।आंदोलन से लोगों की तंद्रा टूटी तथा वे साहसिक राजनीतिक भागेदारी एवं राजनीतिक कार्यों में एकता की महत्ता से परिचित हुये।स्वदेशी आन्दोलन ने उपनिवेशवादी विचारों एवं संस्थाओं की वास्तविक मंशा को लोगों के समक्ष अनावृत्त कर दिया।आंदोलन से प्राप्त हुये अनुभवों से स्वतंत्रता संघर्ष की भावी राजनीति को तय करने में सहायता मिली।
इस प्रकार, स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने उदारवादियों की याचिका एवं अनुनय-विनय की नीति को अप्रासंगिक एवं व्यर्थ साबित कर दिया।

कांग्रेस का सूरत विभाजन

स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रथम चरण में जबकि क्रांतिकारी आतंकवाद धीरे-धीरे गति पकड़ रहा था, दिसम्बर 1907 में कांग्रेस का सूरत विभाजन हुआ। इसका प्रमुख कारण कांग्रेस में दो विपरीत विचाराधाराओं का उदय था ।1905 में जब कांग्रेस का अधिवेशन गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में बनारस में संपन्न हुआ तो उदारवादियों एवं उग्रवादियों के मतभेद खुलकर सामने आ गये। इस अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक ने नरमपंथियों की ब्रिटिश सरकार के प्रति उदार एवं सहयोग की नीति की कटु आलोचना की। तिलक की मंशा थी कि स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का पूरे बंगाल तथा देश के अन्य भागों में तेजी से विस्तार किया जाये, तथा इसमें अन्य संस्थाओं (यथा-सरकारी सेवाओं, न्यायालयों, व्यवस्थापिका सभाओं इत्यादि) को सम्मिलित कर इसे राष्ट्रव्यापी आंदोलन का स्वरूप दिया जाये जबकि उदारवादी इस आंदोलन को केवल बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे तथा अन्य संस्थाओं को इस आंदोलन में सम्मिलित करने के पक्ष में नहीं थे।उग्रवादी चाहते थे कि बनारस अधिवेशन में उनके प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाये जबकि उदारवादियों का मत था कि बंगाल विभाजन का विरोध संवैधानिक तरीके से किया जाये तथा उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग करने की नीति का समर्थन नहीं किया।दिसम्बर 1906 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन में तत्कालीन साम्प्रदायिक दंगों एवं क्रांतिकारी आतंकवाद तथा उग्रवादियों की लोकप्रियता में वृद्धि के कारण उदारवादियों का प्रभाव कम हो गया।इस अधिवेशन में उग्रवादी, बाल गंगाधर तिलक या लाल लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जबकि नरमपंथियों ने इस पद हेतु डा. रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित किया। अंत में दादा भाई नौरोजी सर्वसम्मति से अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये तथा ब्रिटेन या अन्य उपनिवेशों की तरह ‘स्वराज्य’ या ‘स्वशासन’ को कांग्रेस ने अपना लक्ष्य घोषित किया।स्वदेशी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थन में भी एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन में प्रथम बार ‘स्वराज्य’ शब्द का उपयोग किया गया किंतु इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की गयी जिससे बाद में इस विषय पर उदारवादियों एवं उग्रवादियों में बहस छिड़ गयी।अतिवादी चाहते थे कि 1907 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन नागपुर (मध्य प्रांत) में आयोजित किया जाये तथा बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपत राय इसके अध्यक्ष चुने जायें। साथ ही यहां स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन तथा राष्ट्रीय शिक्षा के पूर्ण समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया जाये।दूसरी ओर उदारवादी चाहते थे कि 1907 का अधिवेशन सूरत में आयोजित किया जाये तथा किसी हालत में तिलक को अध्यक्ष न बनने दिया जाये। उन्होंने मेजबान प्रांत के नेता को कांग्रेस का अध्यक्ष न चुने जाने की वकालत की, क्योंकि सूरत, तिलक के गृह प्रांत बम्बई के अंतर्गत आता था।उन्होंने रासबिहारी घोष को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने तथा स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्ताव को वापस लेने की जोरदार मांग की। इस समय दोनों ही पक्षों ने अड़ियल रुख अपना लिया तथा समझौते की किसी भी संभावना से इंकार कर दिया। इन परिस्थितियों में कांग्रेस में विभाजन सुनिश्चित हो गया। चूंकि इस समय कांग्रेस में उदारवादियों का वर्चस्व था फलतः उन्होंने ब्रटिश शासन की सीमा में रहते हुये स्वराज्य या स्वशासन की मांग की तथा संवैधानिक तरीके से ही आंदोलन जारी रखने का निर्णय लिया।

सरकार की रणनीति

इसके पश्चात सरकार ने अतिवादियों पर सुनियोजित हमले प्रारम्भ कर दिये। 1907 से 1911 के मध्य सरकार विरोधी आंदोलन को कुलचने के लिये पांच नये कानून बनाये गये।इन कानूनों में राजद्रोही सभा अधिनियम 1907, भारतीय समाचार पत्र अधिनियम 1908, फौजदारी कानून (संशोधित) अधिनियम 1908 तथा भारतीय प्रेस अधिनियम 1910 प्रमुख थे।मुख्य अतिवादी नेता बालगंगाधर तिलक को गिरफ्तार कर मांडलय जेल (बर्मा) भेज दिया गया। इसी समय विपिनचंद्र पाल तथा अरविंद घोष ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया तथा लाला लाजपत राय विदेश चले गये। अतिवादी आंदोलन को आगे जारी रखने में असफल रहे। उदारवादियों की लोकप्रियता भी कम हो गयी तथा वे युवाओं का सहयोग या समर्थन प्राप्त करने में नाकाम रहे।कांग्रेस के प्रारंभिक वर्षों में उसके प्रति सरकार का रुख सहयोगात्मक रहा। इस समय कांग्रेस में उदारवादियों का वर्चस्व था। उदारवादियों ने प्रारम्भ से ही उग्र-राष्ट्रवाद से स्वयं को दूर रखना प्रारंभ कर दिया था।किंतु बाद के वर्षों में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन के उभरने से कांग्रेस के प्रति सरकार सरकार का मोह भंग हो गया तथा उसने राष्ट्रवादियों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर लिया।सरकार की इस नीति को तीन प्रमुख शब्दों अवरोध, सांत्वना एवं दमन के रूप में समझा जा सकता है। अपनी इस रणनीति के प्रथम चरण में सरकार ने उदारवादियों को डराने हेतु आतिवादियों के साधारण दमन की नीति अपनायी।द्वितीय चरण में सरकार एवं उदारवादियों के मध्य कुछ मुद्दों पर सहमति हुयी तथा सरकार ने उदारवादियों को आश्वासन दिया कि यदि वे अतिवादियों से खुद को अलग रखें तो भारत में और संवैधानिक सुधार संभव हो सकते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य उदारवादियों को अतिवादियों से पृथक करना था। इस प्रकार उदारवादियों को अपने पक्ष में करने पश्चात सरकार के लिये अतिवादियों के दमन का मार्ग आसान हो गया। किंतु बाद में उदारवादी भी सरकार की उपेक्षा के शिकार बन गये।दुर्भाग्यवश जबकि राष्ट्रवादियों में समन्वय की अत्यंत आवश्यकता थी, उदारवादी तथा अतिवादी दोनों ही अंग्रेजों की रणनीति के शिकार हो गये तथा वे सरकार की वास्तविक मंशा को नहीं समझ सके। कांग्रेस का सूरत विभाजन अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार की इसी रणनीति का प्रतिफल था, जिसके तहत नरमपंथी तथा अतिवादी एक-दूसरे से दूर होते गये तथा उनके मतभेद सूरत अधिवेशन में खुलकर सामने आ गये।

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  1. Thanks Tu giving the answer Nd I completely my assignment Nd very thanks to goggle

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