1857 का विद्रोह Revolt of 1857
प्रस्तावना
सन् 1857 का विप्लव भारत-भूमि पर ब्रितानी राज्य के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचकारी और महत्वपूर्ण घटना थी। ” यह एक ऐसी भयानक घटना थी जिसकी प्रचण्ड लपटों में एक बार तो ब्रितानियों का अस्तित्व जल कर मिटने वाला सा प्रतीत होने लगा था। इस रोमांचकारी घटना के मूल कारण संक्षिप्त रूप से इस प्रकार आँके जाते हैं। ये कारण राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सैनिक शीर्षकों में बाँटे जा सकते हैं। विदेशी इतिहासकार इसके वास्तविक कारण सिर्फ़ सैनिक ही मानते हैं। 1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे-
राजनीतिक कारण
डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति : लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, ” जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी। ” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रितानियों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। ” इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।
मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ दुर्व्यवहार : मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया।
नाना साहब के साथ अन्याय : लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रितानियों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया।
समकालीन परिस्थितियाँ : भारतीय लोग पहले ब्रितानी सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रितानियों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रितानियों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रितानियों को भारत से खदेड़ सकते हैं।
प्रशासनिक कारण
ब्रितानियों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रितानियों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होने दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रितानियों को नियुक्त किया। ब्रितानी न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रितानी के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे।भारत में ब्रितानियों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रितानी भारतीयों के साथ कुत्तों के समान व्यवहार करते थे। ब्रितानियों की इस नीति से भारतीय क्रुद्ध हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।
सामाजिक कारण
ब्रितानियों द्वारा भारतीयो के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप : ब्रितानियों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई।
लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रितानियों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।
पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव : पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रितानी शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रितानियों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रितानियों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रितानी पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।
भारतीयों के प्रति भेद-भाव नीति : ब्रितानी भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे धृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रितानियों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।पाश्चात्य संस्कृति को प्रोत्साहन : ब्रितानियों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रितानियों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रितानी उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।
धार्मिक कारण
भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रितानियों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलामानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मो से श्रेष्ठ बताते थे।
आर्थिक कारण
व्यापार का विनाश : ब्रितानियों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रितानियों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रितानियों ने भारत से कच्चा माल इंग्लेण्ड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रितानियों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया।
किसानों का शोषण : ब्रितानियों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था।
अकाल : अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई।
इनाम की जागीरे छीनना : बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यान घ् इमाम आयोग ‘ ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।
भारतीय उद्योगों का नाश तथा बेरोजगारी : ब्रितानियों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।
सैनिक कारण
भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रितानियों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रितानियों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रितानी सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रितानी ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं-
(1)बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
(2)ब्रितानियों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
(3)ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
(1)बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
(2)ब्रितानियों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
(3)ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
तत्कालीन कारण
1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया।
क्रांति का संगठन, उद्देश्य और समय
संगठन
1857 की क्रांति के संबंध में यह कहा जाता है कि इसमें संगठन का अभाव था। इस क्रांति के लिए उद्देश्य, निश्चित समय, प्रचार, तैयारी, एकता, नेतृत्व से लेकर गांवों तक सम्प्रेषित किया गया था। संवाद प्रेषण के लिए कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया था।
उद्देश्य
1857 की क्रांति का उद्देश्य निश्चित और स्पष्ट था। अंग्रेजों को देश से निकालना और भारत को स्वाधीन कराना क्रांतिकारियों का अंतिम लक्ष्य था । यह कहना कि इस क्रांति में भाग लेने वाले सैनिकों, जमींदारों या छोटे-मोटे शासकों के निजी हित थे, क्रांति के महत्त्व को कम करने की कोशिश है। वस्तुतः यह विद्रोह एकता पर आधारित और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध था।
समय
सम्पूर्ण देश में क्रांति की शुरूआत का एक ही समय निर्धारित किया गया था और वह था 31 मई 1857 का दिन । जे.सी. विल्सन ने इस तथ्य को स्वीकार किया था और कहा था कि प्राप्य प्रमाणों से मुझे पूर्ण विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई, 1857 का दिन चुना गया था। यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हुआ हो । किन्तु, इस आधार पर यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था।
क्रांति की शुरूआत
1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।
मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को जेलखानों को तोड़ना,भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजो को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को जेलखानों को तोड़ना,भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजो को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
हिन्दू – मुस्लिम एकता का प्रदर्शन
1857 की क्रांति में हिन्दू और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर भाग लिया। क्रांति ने एक-दूसरे का पूरा साथ दिया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरोध में कारण यह था कि अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति को हिन्दुओं और मुसलमानों को तोड़ने में लागू नहीं किया था। फिर, अंग्रेजी सरकार ने जिस नए कारतूस को भारतीय सैनिकों के प्रयोग के लिए दिया था, उसमें गाय और सूअर की चर्बों का उपयोग किया गया था। इससे दोन धर्मों के सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार का विरोध किया।
क्रांति का दमन
क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
क्रांति की असफलता के कारण
क्रांतिकारियों ने जिस उद्देश्य से 1857 की क्रांति का सूत्रपात किया था, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। इस महान् क्रांति की असफलता के अनेक कारण थे, जिनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
निश्चित समय की प्रतीक्षा न करना
1857 की क्रांति की देशव्यापी शुरूआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था। एक ही दिन क्रांति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता। परन्तु, सैनिकों ने आक्रोश में आकर निश्चित समय के पूर्व 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया। सैनिकों की इस कार्यवाही के कारण क्रांति की योजना अधूरी रह गयी। निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई। इससे अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का दमन करने में काफी सहायता हुई। अनेक स्थानों पर तो 31 मई की प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए। यदि सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात एक साथ हुआ होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती।
देशी राजाओं का देशद्रोही रूख
1857 की क्रांति का दमन करने में अनेक देशी राजाओं ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। पटियाला, नाभा, जीद, अफगानिस्तान और नेपाल के राजाओं ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी की। देशी राजाओं की इस देशद्रोहितापूर्ण भूमिका ने क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ा और क्रांति के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रोत्साहित किया।
साम्प्रदायिकता का खेल
1857 ई. की क्रांति के दौरान अंग्रेजी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, परन्तु आंशिक रूप से ही सही साम्प्रदायिकता का खेल खेलने में सफल रही। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभर कर ही अंग्रेजी सरकार ने सिक्ख रेजिमेंट और मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। मराठों, सिक्खों और गोरखों को बहादुरशाह के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उन्हें यह महसूस कराया गया कि बहादुरशाह के हाथों में फिर से सत्ता आ जाने पर हिन्दुओं और सिक्खों के अत्याचार होगा। इसका मूल कारण था कि सम्पूर्ण पंजाब में बादशाह के नाम झूठा फरमान अंग्रेजों की ओर से जारी किया गया, जिसमें कहा गया था कि लड़ाई में जीत मिलते ही प्रत्येक सिक्ख का वध कर दिया जाएगा। सैनिकों के साथ-साथ जनसाधारण को ही गुमराह किया गया। इस स्थिति में क्रांति का असफल हो जाना निश्चित हो गया। जब देश के भीतर देशवासी ही पूर्ण सहयोग न दें, तो कोई भी क्रांति सफलता प्राप्त नहीं कर सकती।
सम्पूर्ण देश में प्रसारित न होना
1857 ई. की क्रांति का प्रसार सम्पूर्ण भारत में नहीं हो सका था। सम्पूर्ण दक्षिण भारत और पंजाब का अधिकांश हिस्सा इस क्रांति से अछूता रहा। यदि इन क्षेत्रों में क्रांति का विस्तार हुआ होता, तो अंग्रेजों को अपनी शक्ति को इधर भी फैलाना पड़ता और वे पंजाब रेजिमेण्ट तथा मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में असफल रहते।
शस्त्रास्त्रों का अभाव
क्रांति का सूत्रपात तो कर दिया गया, किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रबंध करने में असफल रहे। अंग्रेजी सेना ने तोपों और लम्बी दूरी तक मार करने वाली बंदूकों का प्रयोग किया, जबकि क्रांतिकारियों को तलवारों और भालों का सहारा लेना पड़ा। इसलिए, क्रांति को कुचलने में अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।
सहायक साधनों का अभाव
सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेजों के अधीन थे। इसलिए, इन साधनों का उन्होंने पूरा उपयोग किया। दूसरी ओर, भारतीय क्रांतिकारियों के पास इन साधनों का पूर्ण अभाव था। क्रांतिकारी अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र भेजने में असफल रहे। सूचना के अभाव के कारण क्रांतिकारी संगठित होकर अभियान बनाने में असफल रहे। इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों को मिला और अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांति को क्रमशः कुचल दिया गया।
सैनिक संख्या में अंतर
एक तो विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या वैसे ही कम थी, दूसरे अंग्रेजी सरकार द्वारा बाहर से भी अतिरिक्त सैनिक मंगवा लिया गया था। उस समय कम्पनी के पास वैसे 96,000 सैनिक थे। इसके अतिरिक्त देशी रियासतों के सैनिकों से भी अंग्रेजों को सहयोग मिला। अंग्रेज सैनिकों को अच्छी सैनिक शिक्षा मिली थी और उनके पास अधुनातन शस्त्रास्त्र थे, परन्तु अपने परंपरागत हथियारों के साथ ही भारतीय क्रांतिकारियों ने जिस संघर्ष क्षमता का परिचय दिया, उससे कई स्थलों पर अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए। फिर भी, अंततः सफलता अंग्रेजों के हाथों ही लगी।
क्रांति के परिणाम
1857 ई. की क्रांति अपने तत्कालीन लक्ष्य की दृष्टि से असफल रही, परन्तु इस क्रांति ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस क्रांति के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों हुए। क्रांति का परिणाम अंग्रेजों और भारतीयों के लिए अलग-अलग हुआ।
1857 ई. की क्रांति के जो परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गए, उनमें प्रमुख हैं-
सत्ता का हस्तांतरणः
क्रांति के बाद भारत में सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गयी। इसके लिए भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित हुआ । अब भारत का शासन प्रत्यक्षतः ब्रिटिश नीति से होने लगा। ऐसा करने से कम्पनी द्वारा शासन-व्यवस्था के लिए संगठित बोर्ड ऑफ कंट्रोल, द कोर्ट ऑफ प्रोपराइट्स तथा द कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का विघटन हो गया। इनके स्थान पर द सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (भारत सचिव) के रूप में नए पद का सृजन किया गया। इस सचिव की सहायता के लिए इंग्लैंड में एक परिषद का भी गठन किया गया। अब भारत का गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि बन गया और इसे वायसराय कहा जाने लगा। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत में अच्छे शासन-प्रबंध की स्थापना के लिए कदम उठाए जाने की घोषणा की। महारानी की इस घोषणा से भारतीयों का रोष एवं असंतोष कुछ समयों के लिए ठंढा पड़ गया।
सतर्कता में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने सेना और सैन्य सामग्रियों पर एकाधिकार कर लिया, जिससे भविष्य में भारतीय सैनिकों की ओर से उनके लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो । इस समय से यह भी निश्चय किया गया कि किसी भी भारतीय को उच्च सैनिक पद प्रदान नहीं किया जाएगा। अंग्रेजों को इस नीति को क्रियान्वित करने से काफी समय तक सुरक्षित रहने का अवसर प्राप्त हुआ।
शस्त्रास्त्र पर प्रतिबंध
अंग्रेजी सरकार ने भारत की साधारण जनता के बीच अस्त्र-शस्त्र रखने की मनाही कर दी। इससे भारतीयों की आक्रामक शक्ति को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया। दुर्भाग्यवश भारत के धन से अंग्रेजी सरकार की सेना अधुनातन शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो गई और भारत का जनसाधारण अपनी आत्मसुरक्षा के लिए पारम्परिक शस्त्रास्त्रों को रखने से भी वंचित हो गया।
देशी राजाओं से मित्रता
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने देशी राजाओं के साथ फिर से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए। देशी राजाओं के साथ विरोध की नीति अपनाने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। आगे फिर कोई करने और इसका लाभ उठाने का मार्ग अपनाया। इसी नीति को ध्यान में रखकर ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 को देशी राजाओं का पूर्ण सम्मान किए जाने की घोषणा की।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने ऐसी शिक्षा-पद्धति को लागू किए जाने को प्रोत्साहित किया, जिससे भारतीय अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाएं तथा पाश्चात्य संस्कृति की ओर आकृष्ट हों। पाश्चात्य देशों के वैचारिक आंदोलन से भारत के लोगों को नयी प्रेरणा मिली तथा वे लाभान्वित भी हुए, पर उन देशों की आडम्बरपूर्ण जीवन-पद्धति से भारतीयों का चरित्र-बल भी समाप्त होने लगा। भारत के लोगों के साथ ऐसा होना अंग्रेजों के लिए सुखदायक था।
भारतीयों से दूरी में वृद्धि
अंग्रेजों ने भारत में आरम्भ से गोरे और काले के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता की भावना फैला रखी थी। 1857 की क्रांति के बाद तो प्रत्येक अंग्रेज भारतीयों से सावधान और अलग-थलग रहने लगा। अंग्रेजों को ऐसा महसूस होने लगा कि भारतीयों से दूरी बनाए रखना ही उनके हित में है, क्योंकि नजदीक आने से भारतीय अंग्रेजों के भेड़ों को जन लेंगें और उन्हें परेशान करने लगेंगे। क्रांति के दौरान अंग्रेज सतर्क हो गए और उस सतर्कता को उन्होंने लगभग हमेशा बनाए रखा।
सरकार की नीति में परिवर्तन
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अंतिम दौर में भारत में कठोर एवं दमनात्मक नीति को अपनाया गया था। 1857 की क्रांति को देखकर अंग्रेजी सरकार भारतीयों के विचार पर भी ध्यान देने लगी। सरकार ऐसा अनुभव किया कि भारतीयों की पूर्णरूपेण उपेक्षा से परेशानियां बढ़ेगी। भारतीयों के हित में तो सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया, पर अनेक प्रकार के आश्वासन अवश्य दिए जाने लगे।
1857 की क्रांति के कुछ परिणाम भारतीयों के पक्ष में भी रहे। भारतीयों के पक्ष में जो सकारात्मक परिणाम सामने आए, वे हैं-
आत्मबल में वृद्धि
1857 की क्रांति अपने लक्ष्य को तत्काल प्राप्त करने में असमर्थ रही। परन्तु, इस क्रांति ने भारतीयों के आत्मबल में वृद्धि की और उनकी सुसुप्त चेतना को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जागृत किया। अब भारतीयों में जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया। इस समय से एक जागृत भारत का अभ्युदय हुआ।
राजनीतिक जागृति
लंबी पराधीनता और शासकों को अपराजेय मानने की धारणा ने भारतीयों में आलस्य भर दिया था। पराधीनता को भारतीयों ने अपनी नियति मान ली थी। परन्तु, 1857 की क्रांति ने भारतीयों के शीतित रक्त को फिर से खौला दिया। क्रांति के बाद भारतीयों को ऐसा महसूस हुआ कि जोर लगाने पर स्वशासन की प्राप्ति आसानी से हो सकती है।
संगठन की प्रेरणा
यद्यपि 1857 की क्रांति को संगठित स्वरूप प्रदान की पूर्ण कारण मनोवांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी। व्यापक संगठन के अभाव के कारण ही क्रांति को कुचल दिया गया था। इसलिए, इस क्रांति से आगे के क्रांतिकारियों को व्यापक संगठन की प्रेरणा प्राप्त हुई। 1857 ई. की क्रांति से प्रेरणा पाकर ही आगे के वर्षों में अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों का संचालन संभव हो सका।
एकता की प्रेरणा
1857 की असफलता का कारण सम्पूर्ण भारतवासियों में एकता का अभाव भी था। सिक्ख और दक्षिण भारतीय क्रांति के विरुद्ध थे तथा अनेक देशी रियासतों के शासकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी। जिन क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहां भी सभी वर्गों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध नहीं किया। एकता ही राष्ट्रीयता का मूल मंत्र है- इस तथ्य की ओर भारतीयों का ध्यान क्रांति के असफल हो जाने के बाद गया। अब उन्होंने ऐसा महसूस किया कि एक साथ चलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है और लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
स्वतंत्रता आंदोलन की नयी दृष्टि
1857 की क्रांति का जिस निर्ममता के साथ अंग्रेजी सरकार ने दमन किया था, उससे उसका असली चेहरा भारतीयों के सामने उजागर हुआ। अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण व्यवहार को देखने के बाद भारतवासियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प लिया। इस क्रांति से स्वतंत्रता आंदोलन को भविष्य में एक नयी दृष्टि मिली। विद्रोह के बदले असहयोग का मार्ग होता। शासन और शस्त्रास्त्र का नियंत्रण अंग्रेजी सरकार के हाथों में था और किसी भी प्रकार के विद्रोह का गला घोंट देने की क्षमता उसमें थी, इसलिए क्रांति के बाद विद्रोह का रास्ता छोड़ने की प्रेरणा मिली।
विद्रोह के केंद्र एवं नेता
दिल्ली – जनरल बख्त खान
कानपुर – नाना साहब
लखनऊ – बेगम हज़रत महल
बरेली – खान बहादुर
बिहार – कुंवर सिंह
फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला
झांसी – रानी लक्ष्मी बाई
इलाहाबाद – लियाकत अली
ग्वालियर – तात्या टोपे
गोरखपुर – गजाधर सिंह
कानपुर – नाना साहब
लखनऊ – बेगम हज़रत महल
बरेली – खान बहादुर
बिहार – कुंवर सिंह
फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला
झांसी – रानी लक्ष्मी बाई
इलाहाबाद – लियाकत अली
ग्वालियर – तात्या टोपे
गोरखपुर – गजाधर सिंह
विद्रोह के समय प्रमुख अंग्रेज जनरल
दिल्ली – लेफ्टिनेंट विलोबी ,निकोलसन , हडसन
कानपुर – सर ह्यू व्हीलर ,कॉलिन कैम्पबेल
लखनऊ- हेनरी लॉरेंस , हेनरी हैवलॉक , जेम्स आउट्रम , सर कोलिन कैम्पबेल
झांसी – सर ह्यू रोज
बनारस – कर्नल जेम्स नील
कानपुर – सर ह्यू व्हीलर ,कॉलिन कैम्पबेल
लखनऊ- हेनरी लॉरेंस , हेनरी हैवलॉक , जेम्स आउट्रम , सर कोलिन कैम्पबेल
झांसी – सर ह्यू रोज
बनारस – कर्नल जेम्स नील
स्रोत – आधुनिक भारत का इतिहास (राजीव अहीर )
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