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स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत: The Beginning Of The Struggle For Independence



स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत: The Beginning Of The Struggle For Independence

प्रस्तावना 

इस लेख के द्वारा हम भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण ,कांग्रेस के गठन से पूर्व की राजनीतिक संस्थायें , कांग्रेस का गठन व उदारवादियों की शुरुआती सफलता के बारे में समझने की कोशिश करेंगे व विगत वर्षों के कुछ प्रश्नों को देखेंगे…

उदारवादी चरण और प्रारंभिक कांग्रेस 1858-1905 ई.

भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन कारकों का परिणाम माना जाता है, जो भारत में उपनिवेशी शासन के कारण उत्पन्न हुए जैसे- नयी-नयी संस्थाओं की स्थापना, रोजगार के नये अवसरों का सृजन, संसाधनों का अधिकाधिक दोहन इत्यादि। किंतु विभिन्न परिस्थितियों के अध्योनपरांत यह ज्यादा तर्कसंगत होता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय किसी एक कारण या परिस्थिति से उत्पन्न न होकर विभिन्न कारकों का सम्मिलित प्रतिफल था।

संक्षिप्त रूप में देखा जाये तो भारत में राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिये निम्न कारक उत्तरदायी थे–

विदेशी आधिपत्य का परिणाम।पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा।फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप विश्व स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना एवं आत्म-विश्वास की भावना का प्रसार।प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका।भारतीय पुनर्जागरण।अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिकता को बढ़ावा।ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश इत्यादि।

भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण

भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के निम्न कारण थे —

भारतीय हितों एवं उपनिवेशी हितों में विरोधाभास

भारतवासियों ने देश के आर्थिक पिछड़ेपन की उपनिवेशी शासन का परिणाम माना। उनका विचार था कि देश के विभिन्न वर्ग के लोगों यथा-कृषक, शिल्पकार, दस्तकार, मजदूर, बुद्धजीवी, शिक्षित वर्ग एवं व्यापारियों इत्यादि सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गये हैं। देशवासियों की इस सोच ने आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया। उनका मानना था कि देश में जब तक विदेशी शासन रहेगा लोगों के आर्थिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा।

देश का राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक एकीकरण

भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से पश्चिम में खेबर दरें तक था। कुछ भारतीय राज्य सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में थे तो अन्य देशी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन थीं। ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के तले एकत्र कर दिया। एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, जिन पर दृढ़ता से अमल होता था, भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक लागू होते थे। इसने भारत की परम्परागत सांस्कृतिक एकता को एक नये प्रकार की राजनैतिक एकता प्रदान की। प्रशासनिक सुविधाओं, सैन्य रक्षा उद्देश्यों, आर्थिक व्यापन तथा व्यापारिक शोषण की बातों को ध्यान में रखते हुए परिवहन के तीव्र साधनों का विकास किया गया। पक्के मार्गों का निर्माण हुआ जिससे एक स्थान दूसरे स्थान से जुड़ गये।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से एकीकरण के इन प्रयासों को दो प्रकार से देखा जा सकता है-

एकीकरण से विभिन्न भाग के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गये। जैसे किसी एक भाग में अकाल पड़ने पर इसका प्रभाव दूसरे भाग में खाद्यानों के मूल्यों एवं आपूर्ति पर भी होता था।यातायात एवं संचार के साधनों के विकास से देश के विभिन्न वर्गों के लोग मुख्यतः नेताओं का आपस में राजनीतिक सम्पर्क स्थापित हो गया। इससे विभिन्न सार्वजनिक एवं आर्थिक विषयों पर वाद-विवाद सरल हो गया।

पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा का प्रभाव

आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रचलन से आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली, जिससे भारतीय राजनितिक चिंतन को एक नयी दिशा प्राप्त हुयी। जब ट्रेवेलियन, मैकाले तथा बैंटिक ने देश में अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश किया तो यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय था।पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिये किया गया था। परंतु इससे नवशिक्षित वर्ग के लिये पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खुल गये। बेन्थम, शीले, मिल्टन, स्पेंसर, स्टुअर्ट मिल, पेन, रूसो तथा वाल्टेयर जैसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों के अतिवादी और पाश्चात्य विचारों ने भारतीय बुद्धजीवियों में स्वतंत्र राष्ट्रीयता तथा स्वशासन की भावनायें जगा दी और उन्हें अंग्रेजी साम्राज्य का विरोधाभास खलने लगा।इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा ने सम्पूर्ण राष्ट्र के विभिन प्रान्तों एवं स्थानों के लोगों के लिए संपर्क भाषा का कार्य किया। इसने सभी भाषा-भाषियों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप मिल सका। अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर नवशिक्षित भारतीयों जैसे-वकीलों, डाक्टरों इत्यादि ने उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड की यात्रा की। इन्होंने यहां एक स्वतंत्र देश में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया देखी तथा वस्तुस्थिति का भारत से तुलनात्मक आंकलन किया, जहाँ नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस नवपाश्चात्य भारतीय शिक्षित वर्ग ने भारत में नये बौद्धिक मध्यवर्ग का विकास किया, कालांतर में जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की विभिन्न राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं को इसी मध्य वर्ग से नेतृत्व मिला।

प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका

समय-समय पर उपनिवेशी शासकों द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं शताब्दी के पूवार्द्ध में भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुयी। 1877 में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इनकी प्रसार संख्या लगभग 1 लाख तक पहुंच गयी थी।भारतीय प्रेस, जहां एक ओर उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करता था वहीं दूसरी ओर देशवासियों से आपसी एकता स्थापित करने का आह्वान करता था। प्रेस ने आधुनिक विचारों एवं व्यवस्था जैसे- स्वशासन, लोकतंत्र, दीवानी अधिकार एवं औद्योगिकीकरण इत्यादि के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।समाचार पत्रों, जर्नल्स, पेम्फलेट्स तथा राष्ट्रवादी साहित्य ने देश के विभिन्न भागों में स्थिति राष्ट्रवादी नेताओं के मध्य विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायता पहुंचायी। इस प्रकार भारतीय समाचार-पत्र भारतीय राष्ट्रवाद के दर्पण बन गये तथा जनता को शिक्षित करने का माध्यम।

भारत के अतीत का पुनः अध्ययन

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिह्रास का ज्ञान अत्यंत कम था। वे केवल मध्यकालीन या 18वीं सदी के इतिह्रास से ही थोड़ा-बहुत परिचित थे। किंतु तत्कालीन प्रसिद्ध यूरोपीय इतिह्रासकारों जैसे- मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, रोथ एवं सैसून तथा विभिन्न राष्ट्रवादी इतिह्रासकारों जैसे- आर. जी. भंडारकर, आर. एल. मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पुर्नव्याख्यित कर राष्ट्र की एक नयी तस्वीर पेश की।इन्होंने अथक परिश्रम कर कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, दर्शन, विज्ञान तथा गणित इत्यादि के क्षेत्रों में भारतीय उपलब्धियों एवं मानव सभ्यता के विकास में भारत के योगदान को पुनः प्रकाशित किया, जिससे लोगों में राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुयी।यूरोपीय चिंतकों ने व्याख्या दी कि भारतीय तथा यूरोपीय एक ही प्रकार के आयों की संतान है। इसका भारतवासियों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा तथा उनमें प्रजातीय हीनता की भावना जाती रही। इससे देशवासियों की यह भ्रांति भी दूर हो गयी कि वे सदैव ही गुलामी की दासता के अधीन जीते रहे हैं।

सुधार आंदोलनों का विकासात्मक स्वरूप

19वीं शताब्दी में भारत में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। इन आंदोलनों ने सामाजिक, धार्मिक नवजागरण का कार्यक्रम अपनाया और सारे देश को प्रभावित किया। आंदोलनकारियों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य,सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उनके लिये संघर्ष किया।इन आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक एकता कायम की। समाज सुधार के प्रस्तावों को सरकारी अनुमति में विलंब ने समाज सुधारकों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि जब तक स्वशासन नहीं होगा सुधार संबंधी विधेयकों को पूर्णतः सरकारी सहमति एवं सहयोग नहीं मिल सकता। सुधार-आंदोलनों ने देशवासियों में साहस जुटाया कि वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करें।

मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उत्थान

अंग्रेजों की प्रशासनिक तथा आर्थिक प्रक्रिया से नगरों में एक मध्यवर्गीय नागरिकों की श्रेणी उत्पन्न हुई। इस नवीन श्रेणी ने तत्परता से अंग्रेजी भाषा सीख ली जिससे उसे रोजगार तथा सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों ही प्राप्त होने लगे। यह नवीन श्रेणी अपनी शिक्षा, समाज में उच्च स्थान तथा प्रशासक वर्ग के समीप होने के कारण आगे आ गई। यह मध्यवर्ग भारत की नवीन आत्मा बन गया तथा इसने समस्त देश में नयी शक्ति का संचार किया। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को उसके सभी चरणों में नेतृत्व प्रदान किया।


तत्कालीन विश्वव्यापी घटनाओं का प्रभाव

दक्षिण अमेरिका में स्पेनी एवं पुर्तगाली उपनिवेशी शासन की समाप्ति से अनेक नये राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त यूनान एवं इटली के स्वतंत्रता आंदोलनों एवं आयरलैंण्ड की घटनाओं ने भारतीयों को अत्यंत प्रभावित किया।

विदेशी शासकों का जातीय अहंकार तथा प्रतिक्रियावादी नीतियां

अंग्रेज शासकों की जातीय अहंकार एवं श्रेष्ठता की भावना ने भारतीयों को अत्यंत आहत किया। अंग्रेज अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने खुले आम शिक्षित भारतीयों को अपमानित किया तथा कई बार उन पर प्रहार किये। उच्च एवं महत्वपूर्ण पदों पर भारतीयों को नियुक्ति का अधिकार नहीं था। इन सभी कारणों से त्वचा के गोरेपन एवं प्रजातीय श्रेष्ठता के रंग में डूबे अंग्रेजों के प्रति भारतीयों में घृणा पैदा हो गयी।लार्ड लिटन की विभिन्न प्रतिक्रियावादी नीतियों जैसे- इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना (1876), जब पूरा दक्षिण भारत भयंकर अकाल की चपेट में था तब भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन (1877), वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878) तथा शस्त्र अधिनियम (1878) इत्यादि ने देशवासियों के समक्ष सरकार की वास्तविक मंशा उजागर कर दी तथा अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार किया।इसके पश्चात इलबर्ट बिल विवाद (1883) सामने आया। लार्ड रिपन के समय इलबर्ट बिल को लेकर भारत में एक विशिष्ट समस्या खड़ी हो गयी। लार्ड रिपन ने इस प्रस्ताव द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियन अधिकारियों के मुकद्दमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा। इस बात पर सम्पूर्ण भारत और इंग्लैण्ड में अंग्रेजों ने संगठित होकर ऐसा तीव्र आंदोलन किया कि इस प्रस्ताव का संशोधित रूप ही कानून बन सका। इसमें काले और गोरे को लेकर, जो विवाद खड़ा हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज रंग के आधार पर भारतीयों से कितनी घृणा करते थे। इससे भारतीयों में अंग्रेजों के विरुद्ध नफरत पैदा हो गयी तथा उनमें संगठित होकर आंदोलन करने की प्रेरणा जागी।

साहित्य की भूमिका

19वीं एवं 20वीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के साहित्य की रचना हुयी उससे भी राष्ट्रीय जागरण में सहायता मिली। विभिन्न कविताओं, निबंधों, कथाओं, उपन्यासों एवं गीतों ने लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की।हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र चटर्जी, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलंकर, असमिया में लक्ष्मीदास बेजबरुआ इत्यादि उस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी साहित्यकार थे।इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा तथा राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। साहित्यकारों के इन प्रयासों से आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।

कांग्रेस के गठन से पूर्व की राजनीतिक संस्थायें

19वीं शताब्दी के पूर्वाध में भारत में जिन राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुयी उनका नेतृत्व मुख्यतः समृद्ध एवं प्रभावशाली वर्ग द्वारा किया गया। इन संस्थाओं का स्वरूप स्थानीय या क्षेत्रीय था। इन्होंने विभिन्न याचिकाओं एवं प्रार्थना-पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश संसद के समक्ष निम्न मांगें रखीं-
प्रशासनिक सुधारप्रशासन में भारतीयों की भागीदारी को बढ़ावाशिक्षा का प्रसार
किंतु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में जिन राजनीतिक संस्थाओं का गठन हुआ उसका नेतृत्व मुख्यतः मध्य वर्ग के द्वारा किया गया। इस वर्ग के विभिन्न लोगों जैसे-वकीलों, डाक्टरों, पत्रकारों तथा शिक्षकों इत्यादि ने इन राजनीतिक संगठनों को शसक्त नेतृत्व प्रदान किया इन सभी ने सक्षम नेतृत्व प्रदान कर इन संस्थाओं की मांगों को परिपूर्णता एवं प्रासंगिकता प्रदान की।

बंगाल में राजनीतिक संस्थाएं

बंगाल में राजनीतिक आंदोलनों के सबसे पहले प्रवर्तक थे राजा राममोहन राय। वे पाश्चात्य विचारों से प्रभावित व्यक्ति थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजों का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर आकृष्ट किया। ऐसा माना जाता है कि 1836 के चार्टर एक्ट की अनेक उदारवादी धारायें उन्हीं के प्रयत्नों का परिणाम थीं। लेकिन बंगाल में सर्वप्रथम राजनीतिक संगठन बनाने का श्रेय उनके सहयोगियों को मिला, जब उन्होंने 1836 में बंगभाषा प्रकाशक सभा का गठन किया। जुलाई 1838 में जमीदारों के हितों की सुरक्षा के लिये जमींदारी एसोसिएशन जिसे लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन (द्वारकानाथ टैगोर के द्वारा गठित)के नाम से भी जाना जाता था, का गठन किया गया। जमींदारी एसोसिएशन भारत की पहली राजनीतिक सभा थी, जिसने संगठित राजनीतिक प्रयासों का शुभारम्भ किया। इसने ही सर्वप्रथम अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये संवैधानिक प्रदर्शन का मार्ग अपनाया।1843 में एक अन्य राजनीतिक सभा बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसायटी बनायी गयी, जिसका उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद की भावना जगाना तथा राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना था। सोसायटी, ब्रिटिश शासन के प्रभाव से समाज के सभी वर्ग के लोगों की कठिनाइयों एवं दुखों पर विचार कर उनके समाधान ढूंढ़ने का प्रयत्न करती थी।1851 में जमींदारी एसोसिएशन तथा बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी का आपस में विलय हो गया तथा एक नयी संस्था ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन का गठन हुआ।एसोसिएशन के सुझावों पर, 1853 के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल की विधायी परिषद में कानून निर्माण में सहायता देने के लिये 6 नये सदस्यों को मनोनीत करने का प्रावधान किया गया।1866 में दादाभाई नौरोजी ने लंदन में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन का गठन किया। इसका उद्देश्य भारत के लोगों की समस्याओं और मांगों से ब्रिटेन को अवगत कराना तथा भारतवासियों के पक्ष में इंग्लैण्ड में जनसमर्थन तैयार करना था। कालांतर में भारत के विभिन्न भागों में इसकी शाखायें खुल गयीं।1875 में शिशिर कुमार घोष ने इण्डियन लीग की स्थापना की, जिसका उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना तथा राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहन देना था।इण्डियन एसोसिएशन ऑफ़ कलकत्ता की स्थापना 1876 में हुई। सुरेंद्रनाथ बनर्जी एवं आनंद मोहन बोस इसके प्रमुख नेता थे। ये दोनों ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की संकीर्ण एवं जमींदार समर्थक नीतियों के विरुद्ध थे। इंडियन एसोसिएशन आफ कलकत्ता, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाओं में से एक महत्वपूर्ण संस्था थी। इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-
1. तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में सशक्त जनमत तैयार करना।
2. एक साझा राजनीतिक कार्यक्रम हेतु भारतवासियों में एकता की स्थापना करना ।
एसोसिएशन की शाखाएं बंगाल के अनेक स्थानों तथा बंगाल से बाहर भी कई स्थानों पर खोली गयीं। एसोसिएशन ने निम्न आय वर्ग के लोगों को आकृष्ट करने के लिए अपनी सदस्यता शुल्क काफी कम रखी।

बंबई में राजनीतिक संस्थाएं

बंबई में सर्वप्रथम राजनीतिक संस्था बाम्बे एसोसिएशन थी, जिसका गठन 26 अगस्त 1852 को कलकत्ता ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन के नमूने पर किया गया। इसका उद्देश्य भेदभावपूर्ण सरकारी नियमों के विरुद्ध सरकार को सुझाव देना तथा विभिन्न बुराइयों को दूर करने हेतु सरकार को ज्ञापन देना था।1867 में महादेव गोविंद रानाडे ने पूना सार्वजनिक सभा बनायी। जिसका उद्देश्य सरकार और जनता के मध्य सेतु का कार्य करना था।1885 में बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन बनायी गयी। जिसका श्रेय सैय्यद बदरुद्दीन तेय्यबाजी, फिरोजशाह मेहता एवं के टी. तेलंग की है।

मद्रास में राजनीतिक संस्थाएं

कलकत्ता की ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन की शाखा के रूप में मद्रास नेटिव एसोसिएशन का गठन किया गया किंतु यह ज्यादा प्रभावी न हो सकी।
मई 1884 में एम. वीराराघवाचारी, बी. सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं पी.आनंद चारलू ने मद्रास महाजन सभा का गठन किया। इस सभा का उद्देश्य स्थानीय संगठन के कायों को समन्वित करना था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस- स्थापना, उद्देश्य एवं कार्यक्रम

कांग्रेस के गठन से पूर्व देश में एक अखिल भारतीय संस्था के गठन की भूमिका तैयार हो चुकी थी। 19वीं शताब्दी के छठे दशक से ही राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय संगठन के निर्माण में प्रयासरत थे। किंतु इस विचार की मूर्त एवं व्यावहारिक रूप देने का श्रेय एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. ह्यूम को प्राप्त हुआ। ह्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया। इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। 1884 में उन्हीं के प्रयत्नों से एक संस्था ‘इंडियन नेशनल यूनियन’ की स्थापना हुयी।इस यूनियन ने पूना में 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया और इस कार्य का उत्तरदायित्व भी ए.ओ. ह्यूम को सौंपा। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने से उसी वर्ष यह सम्मेलन बंबई में आयोजित किया गया।सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, यहीं सर्वप्रथम अखिल भारतीय कांग्रेस का गठन किया गया।ए.ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख वास्तुविद (Architects) माने जाते हैं।कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की तथा इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके पश्चात प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न शहरों में इसका वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया जाता था। देश के प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं ने कांग्रेस के प्रारंभिक चरण में इसकी अध्यक्षता की तथा उसे सुयोग्य नेतृत्व प्रदान किया। इनमें प्रमुख हैं- दादा भाई नौरोजी (तीन बार अध्यक्ष), बदरुद्दीन तैय्यब्जी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चालू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र दत्त, आनंद मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले।कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली ने 1890 में प्रथम बार कांग्रेस को संबोधित किया। इस सम्बोधन का कांग्रेस के इतिह्रास में दूरगामी महत्व था क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं की सहभागिता परिलक्षित होती है।

कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम इस प्रकार थे-

1. लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी आंदोलन चलाना।
2. भारतीयों को राजनीतिक लक्ष्यों से परिचित कराना तथा राजनीतिक शिक्षा देना।
3. आंदोलन के लिये मुख्यालय की स्थापना।
4. देश के विभिन्न भागों के राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना को प्रोत्साहित करना।
5. उपनिवेशवादी विरोधी विचारधारा को प्रोत्साहन एवं समर्थन।
6. एक सामान्य आर्थिक एक राजनीतिक कार्यक्रम हेतु देशवासियों को एकमत करना।
7. लोगों को जाति, धर्म एवं प्रांतीयता की भावना से उठाकर उनमें एक राष्ट्रव्यापी अनुभव को जागृत करना।
8. भारतीय राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन एवं उसका प्रसार।

कांग्रेस का प्रथम चरण 1885-1905 ई.

कांग्रेस के इस चरण को उदारवादी चरण के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस चरण में आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः उदारवादी नेताओं के हाथों में रहा। इनमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, एस.एन. बनर्जी, रासबिहारी घोष, आर.सी. दत्त, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, पी. आर. नायडू, आनंद चालू एवं पंडित मदन मोहन मालवीय इत्यादि प्रमुख थे। ये नेता उदारवादी नीतियों एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शन में विश्वास रखते थे। इनकी यह विशेषता इन्हें 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में उभरने वाले नव-राष्ट्रवादियों जिन्हें उग्रवादी कहते थे, से पृथक् करती है।उदावादी, कानून के दायरे में रहकर अहिंसक एवं संवैधानिक प्रदर्शनों के पक्षधर थे। यद्यपि उदारवादियों की यह नीति अपेक्षाकृत धीमी थी किंतु इससे क्रमबद्ध राजनीतिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हुयी। उदारवादियों का मत था कि अंग्रेज भारतीयों को शिक्षित बनाना चाहते हैं तथा वे भारतीयों की वास्तविक समस्याओं से बेखबर नहीं हैं। अतः यदि सर्वसम्मति से सभी देशवासी प्राथनापत्रों, याचिकाओं एवं सभाओं इत्यादि के माध्यम से सरकार से अनुरोध करें तो सरकार धीरे-धीरे उनकी मांगें स्वीकार कर लेगी।अपने इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उदारवादियों ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। पहला, भारतीयों में राष्ट्रप्रेम एवं चेतना जागृत कर राजनीतिक मुद्दों पर उन्हें शिक्षित करना एवं उनमें एकता स्थापित करना। दूसरा, ब्रिटिश जनमत एवं ब्रिटिश सरकार को भारतीय पक्ष में करके भारत में सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ करना। अपने दूसरे उद्देश्यों के लिये राष्ट्रवादियों ने 1899 में लंदन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी ‘इंडिया’ की स्थापना की। दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवन का काफी समय इंग्लैंड में बिताया तथा विदेशों में भारतीय पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास किया।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों का योगदान

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों की आलोचना

अनेक उदारवादी नेताओं यथा-दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त, दिनशा वाचा एवं कुछ अन्य ने ब्रिटिश शासन की शोषणमूलक आर्थिक नीतियों का अनावरण किया तथा उसके द्वारा भारत में किये जा रहे आर्थिक शोपण के लिये ‘निकास सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया।इन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का परिणाम भारत को निर्धन बनाना है।इनके अनुसार, सोची-समझी रणनीति के तहत जिस प्रकार भारतीय कच्चे माल एवं संसाधनों का निर्यात किया जाता है तथा ब्रिटेन में निर्मित माल को भारतीय बाजारों में खपाया जाता है वह भारत की खुली लूट है। इस प्रकार इन उदारवादियों ने अपने प्रयासों से एक ऐसा सशक्त भारतीय जनमत तैयार किया जिसका मानना था कि भारत की गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ेपन का कारण यही उपनिवेशी शासन है।इन्होंने यह भी बताया कि भारत में पदस्थ अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी वेतन एवं अन्य उपहारों के रूप में भारतीय धन का एक काफी बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेजते हैं जिससे भारतीय धन का तेजी से इंग्लैंड की ओर प्रवाह हो रहा है।इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर सभी उदारवादियों ने एक स्वर से सरकार से भारत की गरीबी दूर करने के लिये दो प्रमुख उपाय सुझायेः पहला भारत में आधुनिक उद्योगों का तेजी से विकास तथा संरक्षण एवं दूसरा भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।इसके अतिरिक्त उन्होंने भू-राजस्व में कमी करने, नमक कर का उन्मूलन करने, बागान श्रमिकों की दशा सुधारने एवं सैन्य खर्च में कटौती करने की भी मांग की।

व्यवस्थापिका संबंधी योगदान तथा संवैधानिक सुधार

1885 से 1892 के मध्य राष्ट्रवादियों की संवैधानिक सुधारों की मांगें मुख्यतया निम्न दो बिन्दुओं तक केंद्रित रही-
1. परिषदों का विस्तार एवं इनमें भारतीयों की भागेदारी बढ़ाना। तथा
2. परिषदों में सुधार, जैसे परिषदों को और अधिक अधिकार देना मुख्यतः आर्थिक विषयों पर।
इसी समय दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले एवं लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य की मांग प्रारंभ कर दी। इन्होंने ब्रिटिश सरकार से मांग की कि भारत को कनाडा एवं आस्ट्रेलिया की तरह स्वशासित उपनिवेश का दर्जा दिया जाये। फिरोजशाह मेहता एवं गोखले ने ब्रिटिश सरकार की इस मंशा की आलोचना की जिसके तहत वह भारतीयों को स्वशासन देने की दिशा में ईमानदारी पूर्व कार्य नहीं कर रही थी।यद्यपि ब्रिटिश सरकार की वास्तविक मंशा यह थी कि ये परिषदें भारतीय नेताओं के उद्गार मात्र प्रकट करने का मंच हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं। फिर भी भारतीय राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों में उत्साहपूर्वक भागीदारी निभायी तथा अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। राष्ट्रवादियों ने इनके माध्यम से विभिन्न भारतीय समस्याओं की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया। अक्षम कार्यपालिका की खामियां उजागर करना, भेदभावपूर्ण नीतियों एवं प्रस्तावों का विरोध करना तथा आधारभूत आर्थिक मुद्दों को उठाने जैसे कार्य इन राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों के माध्यम से किये।
सामान्य प्रशासकीय सुधारों हेतु उदारवादियों के प्रयास

इसमें निम्न प्रयास सम्मिलित थे-

सरकारी सेवाओं के भारतीयकरण की मांगः इसका आधार आर्थिक था, क्योंकि विभिन्न प्रशासकीय पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति से देश पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है, जबकि भारतीयों की नियुक्ति से आर्थिक बोझ में कमी होगी। साथ ही अंग्रेज अधिकारियों एवं कर्मचारियों को जो वेतन एवं भते मिलते हैं, वे उसका काफी बड़ा हिस्सा इंग्लैण्ड भेज देते हैं। इससे भारतीय धन का निकास होता है। इसके अतिरिक्त नैतिक आधार पर भी यह गलत था कि भारतीयों के साथ भेदभाव किया जाये तथा उन्हें प्रशासकीय पदों से दूर रखा जाये।न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।पक्षपातपूर्ण एवं भ्रष्ट नौकरशाही तथा लंबी एवं खर्चीली न्यायिक प्रणाली की भर्त्सना।ब्रिटिश सरकार की आक्रामक विदेश नीति की आलोचना। बर्मा के अधिग्रहण, अफगानिस्तान पर आक्रमण, एवं उत्तर-पूर्व में जनजातियों के दमन का कड़ा विरोध।विभिन्न कल्याणकारी मदों यथा-स्वास्थ्य, स्वच्छता इत्यादि में ज्यादा व्यय की मांग। प्राथमिक एवं तकनीकी शिक्षा में ज्यादा व्यय पर जोर, कृषि पर जोर एवं सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, कृषकों हेतु कृषक बैंकों की स्थापना इत्यादि।भारत के बाहर अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में कार्यरत भारतीय मजदूरों की दशा में सुधार करने की मांग। इनके साथ हो रहे अत्याचार एवं प्रजातीय उत्पीड़न को रोकने की अपील !

दीवानी अधिकारों की सुरक्षा

इसके अंतर्गत विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने एवं प्रेस की स्वतंत्रता तथा भाषण की स्वतंत्रता के मुद्दे सम्मिलित थे। उदारवादी या नरमपंथियों ने इन अधिकारों की प्राप्ति के लिये एक सशक्त आंदोलन चलाया तथा इस संबंध में भारतीय जनमानस को प्रभावित करने में सफलता पायी। इसके परिणामस्वरूप शीघ्र ही दीवानी अधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बन गया। उदारवादियों के इन कायों से भारतीयों में चेतना जाग्रत हुयी एवं जब 1897 में बाल गंगाधर तिलक एवं अन्य राष्ट्रवादी नेताओं तथा पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया तो इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुयी। नातू बंधुओं की गिरफ्तारी एवं निर्वासन के प्रश्न पर भी भारतीयों ने कड़ा रोष जाहिर किया।

प्रारंभिक राष्ट्रवादियों के कार्यों का मूल्यांकन

कुछ आलोचकों के मतानुसार भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में नरमपंथियों का नाममात्र का योगदान था इसीलिये वे अपने चरण में कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं कर सके। इन आलोचकों का दावा है कि अपने प्रारंभिक चरण में कांग्रेस शिक्षित मध्य वर्ग अथवा भारतीय उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करती थी। उनकी अनुनय-विनय की नीति को आंशिक सफलता ही मिली तथा उनकी अधिकांश मांगे सरकार ने स्वीकार नहीं कीं। निःसंदेह इन आलोचनाओं में पर्याप्त सच्चाई है। किंतु नरमपंथियों की कुछेक उपलब्धियां भी थीं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जैसे-उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज को नेतृत्व प्रदान किया।साझा हित के सिद्धांतों पर आम सहमति बनाने एवं जागृति लाने में वे काफी हद तक सफल रहे। उन्होंने भारतवासियों में इस भावना की ज्योति जलाई कि सभी के एक ही शत्रु (अंग्रेज) हैं तथा सभी भारतीय एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं। उन्होंने लोगों को राजनीतिक कार्यों में दक्ष किया तथा आधुनिक विचारों की लोकप्रिय बनाया। उन्होंने उपनिवेशवादी शासन की आर्थिक शोषण की नीति को उजागर किया। नरमपंथियों के राजनीतिक कार्य दृढ़ विश्वासों पर अविलम्बित थे ने उथली भावनाओं पर।उन्होंने इस सच्चाई को सार्वजनिक किया कि भारत का शासन, भारतीयों के द्वारा उनके हित में हो। उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रवाद एवं लोकतांत्रिक विचारों एवं प्रतिनिधि कार्यक्रम विकसित किया, जिससे बाद में राष्ट्रीय आंदोलन को गति मिली। उन्हीं के प्रयासों से विदेशों विशेषकर इंग्लैण्ड में भारतीय पक्ष को समर्थन मिल सका।

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